हम जिस काल में जी रहे है, उस काल के अनुसार घर हो ।
हम जिस प्रदेश में रहना चाहते हैं, वहाँ की जलवायु एवं परम्परा को ध्यान में रखते हुए घर बनायें।
हम अपनी रुचि एवं आवश्यकता के अनुरूप गृहनिर्माण में प्रवृत्त हों।
घर बनाते समय हमे शासकीय नियमों का उल्लंघन नहीं करना है। हम अपनी आर्थिक, सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्वों की मर्यादा में रहते हुए घर की संकल्पना करें।
अप्रशस्त एवं निन्द्यभूमि में घर की स्थापना न करें।
कुलपरम्परा की रक्षा के लिये आस्तिक बुद्धि रखते हुए हमें गृह निर्माण में प्रवृत्त होना चाहिये।
हमें उस आकार प्रकार का घर बनाना चाहिये जो निषिद्ध न हो। गृहस्थ के लिये आयताकार घर ही प्रशस्त है, चौकोर समभुज घर सम है तथा त्रिभुज बहुभुजाकार अप्रशस्त है। कहते हैं-
“दीर्घे प्रस्थे समानञ्च न कुर्यान्मन्दिरं बुधः ।
चतुरस्त्रे गृहे कारो गृहिणां धननाशनम् ॥”
( श्री ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्री कृष्ण जन्म खण्ड, १०३/५७)
विश्वकर्मा के प्रति श्रीकृष्ण का वचन है- बुद्धिमान को चाहिये कि जिस की लम्बाई चौड़ाई समान हो अर्थात् वर्गाकार हो, ऐसा घर न बनाये चौकोर घर में वास करना गृहस्थ के लिये धन का नाश करने वाला है।
इसी प्रकार, विषम भुज घर में शोक, वर्तुल घर में दरिद्रता, त्रिभुजाकार घर में राजभय, पुत्रहानि, वैधव्य, शोक होता है। पञ्चभुज घर में सन्तान की हानि होती है। षड्भुजाकार घर में मृत्यु एवं क्लेश का आगम होता है। सप्तभुज घर में स्त्री शोक, व्यवसाय हानि तथा अनर्थ होता है। अष्टभुज घर हर प्रकार से विनाश कारक होता है। चौड़े मुख (सिंह मुख) घर में अकाल मृत्यु होती है। असमकोण घर (जिस को दो आसन्न भुजाएँ परस्पर लम्ब न हो) में रोग, अपमान, च्युति, हानि तथा अशांति रहती है। घर का प्रत्येक कोना सम होना शुभ है।
दण्डाकार घर (जिसकी चौडाई बहुत कम और लम्बाई अत्यधिक) हो में, पशुओं की हानि तथा वंश क्षय होता है। अभव्य आकार के (शकट, पक्षी, मृदंग, पंखा, धनुष कुम्भ, मुद्रर, ओखली, मुसल, कुल्हाणी सदृश) घर में धन एवं सुख की क्षति बन्धुनाश, रोग, पलायनता, हिंसा, कंजूसी, लड़ाई-झगड़ा, पाप आदि होता रहता है।
यदि घर के मुख्य द्वार को भुजा, पाखं भुजा से अधिक है अर्थात् लम्बाई से चौडाई अधिक है दो वह घर उन्नति सील नहीं होता। पर की चौड़ाई उसको लम्बाई से अधिक नहीं होनी चाहिए। चौड़ाई से दुगुनी वा अधिक लम्बाई का घर गृह स्वामी को हानि पहुंचाता है।
वाक्य है-
“विस्ताराद् द्विगुणं गेहं गृहस्वामिविनाशनम् ।“
( विश्वकर्मा प्रकाश २/१०९)
घर को लम्बाई और चौड़ाई का अनुपात ३:२, ४:३, ५:४, ६:५ होना उत्तम है। यह अनुपात १:१ सम है। तथा यदि २ : १, ३: १,१:४,५:१ हो तो अधन अधमतर, निकृष्ट है।
अच्छा घर आनुपातिक अतिवर्जित लम्बाई चौडाई का ही मान्य है। लम्बाई एवं चौडाई को भुजाओं का मिलन तिरछा नहीं होना चाहिये। ऐसा होने पर यह कोण घर होता है, जो कि अशुभ है।
घर की लम्बाई चौड़ाई के विषय में मत्स्य पुराण का मत है- “चतुर्थांशधिकं दैर्ध्य।” (मत्स्य पु. २५४/१५,२५ )
अर्थात् चौड़ाई के चौथाई भाग को उसमें जोड़ देने से लम्बाई की प्राप्ति होती है। जैसे घर की चौड़ाई चालीस हाथ है तो इस की लम्बाई = (४० ÷ ४) + ४० अर्थात् १० + ४० = ५० हाथ हुई। यदि चौड़ाई १२ हाथ है तो लम्बाई (१२÷ ४) + १२ = ३ + १२ = १५ हाथ हुई। वर्णव्यवस्था के आधार पर भी घर की लम्बाई चौड़ाई का आनयन किया जाता है।
अथ श्लोकः …
“दशांशेनाष्ट भागेन त्रिभागेनाथ पादिकम् ।
अधिकं दैर्घ्यमित्याहुब्राह्मणादेः प्रशस्यते ॥”
(मत्स्य पु. २५४/२९,३०)
ब्राह्मण के घर की लम्बाई चौडाई से दशांश क्षत्रिय के घर की लम्बाई उसकी चौड़ाई से अमांश वैश्य के घर को लम्बाई उसकी चौड़ाई से तिहाई तथा शूद्र को चौथाई होती है।
जैसे चारों वर्णों के लोगों के घर की चौड़ाई यदि क्रम ४०,३२,२४,१६ हाथ है उनको लम्बाई क्रमशः ४० + (४०÷१०) = ४० + ४ = ४४
३२ + (३२÷८) = ३२ + ४ = ३६,
२४ + (२४ ÷ ३) = २४ + ८ = ३२,
१६ + (१६ ÷ ४) = १६+४= २० हाथ हुई।
प्राचीन वास्तु का यह एक सूत्र है जो कि व्यक्ति को सामाजिक आर्थिक स्थिति के अनुरूप भवन को लम्बाई एवं चौड़ाई के अनुपात को बताता है।
अतिवर्तुलाकार (दीर्घवृत्तीय) भवन संसद, सभागार के रूप में प्रशस्य है। अष्टकोणीय एवं षट्कोणीय भवन सैन्य संस्थानों के रूप में माह्य हैं। पञ्चभुजीय भवन विद्यापीठों के रूप में प्रयोज्य हैं। टेढ़े मेढ़े एवं विचित्र आकृतियों वाले भवन विभिन्न उद्योगों एवं कार्यशालाओं के रूप में उपयुक्त हैं। त्रिकोणीय भवन तांत्रिक उद्देश्यों के लिये साधु हैं।
गृहारम्भ वा गृहप्रवेश के समय वास्तुपूजा करने वाला धन, धान्य, आरोग्य, पुत्रादि प्राप्त कर सुख भोगता है जो वास्तु पूजा नहीं करता वह नाना प्रकार के क्लेश एवं विषाद को प्राप्त कर दुर्भाग्य को दोष देता है।
द्विस्वभाव राशियों में सूर्य के रहने पर गृह निर्माण का निषेध है। चर एवं अचर राशियों के सूर्य में ही गृहारंभ करना चाहिये।
१- मेष राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने पर आरोग्यप्राप्ति ।
२. वृष राशि के सूर्य में गृहारम्भ होने पर धन की वृद्धि ।
३- मिथुन राशि के सूर्य में नींव रखने पर अकालमृत्यु ।
४- कर्क राशि के सूर्य में नींव डालने पर प्रमोद एवं सुख ।
५- सिंह राशि के सूर्य में घर बनाने पर सेवकों की प्राप्ति।
६. कन्या राशि के सूर्य में गृह बनाने पर रोगों की वृद्धि ।
७. तुला राशि के सूर्य में घर बनाने से कलत्रसुख।
८. वृश्चिक राशि के सूर्य में गृहारंभ करने पर सम्पत्तिवृद्धि ।
९- धनु राशि के सूर्य में भवन निर्माण करने पर धर्महानि।
१०- मकर राशि के सूर्य में भवन बनाने पर प्रतिष्ठाप्राप्ति ।
११- कुम्भ राशि के सूर्य में घर बनाने से अनेक लाभ।
१२- मीन राशि के सूर्य में गृह बनाने पर मृत्युकष्ट होता है।
चान्द्रमास के सन्दर्भ में गृह निर्माण का फल इस प्रकार कहा है-
१- चैत्रमास में गृहारम्भ करने से रोग शोक की प्राप्ति।
२- वैशाख मास में गृहारम्भ करने से आरोग्य एव पुत्रप्राप्ति
३. ज्येष्ठ मास में गृहारम्भ करने पर मृत्यु एवं विपत्ति।
४- आषाढ मास में गृहारम्भ करने पर पशुओं की हानि ।
५. श्रावण मास में गृहारम्भ करने पर पशुधनवृद्धि।
६ .भाद्रपद मास मे गृहारम्भ करने पर दारिद्रय एवं नाश।
७. आश्विन मास में गृहारम्भ करने पर कलह एवं स्वीहानि।
८ .कार्तिक मास में गृहारम्भ करने पर आरोग्य एवं सन्तानप्राप्ति ।
९. मार्गशीर्ष मास में गृहारम्भ करने पर उत्तम भोग की प्राप्ति ।
१० .पौष मास में गृहारम्भ करने पर चौरभय एवं हानि ।
११ .माघ मास में गृहारम्भ करने पर अग्निभय एवं रोग
१२ फाल्गुन मास में गृहारम्भ करने पर वंशवृद्धि एवं सुख होता है।
कृष्णपक्ष में दिन के पूर्वभाग में गृहारम्भ करना शुभ है। शुक्ल पक्ष में दिन के उत्तरार्ध में गृहारम्भ करना साथ है। कृष्ण पक्ष में क्रूरवार होने पर तथा शुक्ल पक्ष में सौम्यवार होने पर गृहारम्भ करना प्रशस्त है। गृहारम्भ के समय अपशकुन होने पर गृहारम्भ रोक देना चाहिए। पुनः महाशान्ति करा कर वृद्ध (ज्ञानी) ब्राह्मण की अनुमति लेकर गृहारम्भ करना चाहिये। जलपूर्णकलश रख कर ज्योति प्रज्जवलित कर गृहारम्भ करना अवश्य शुभ होता है।
जहाँ पर घर बनाया जा रहा है, उसके आस-पास जल स्थान के विषय में विचार करना आवश्यक ।। इसका भी पर पर प्रभाव पड़ता है। पूर्वादि दिशाओं में कूप एवं जलाशय का फल इस प्रकार है
कूप के अन्तर्गत भूमिगत टंकी, बोरिंग, हैण्डपाइप, नल आता है। भूतल पर बनी टंकी जलाशय है।
जल प्रवाह वा प्रपात का भी घर पर शुभाशुभ प्रभाव होता है। इससे पूर्व में धनलाभ, आग्नेय में धननाश, दक्षिण में रोग, संकट, नैर्ऋत्य में प्राणघात, क्षय, कलह, पश्चिम में सन्तान नाश, वायव्य में सुख, उत्तर में सर्वलाभ संवृद्धि, ईशान में धन-धान्य पुष्टि, वृद्धि होती है। नल से पानी का गिरना प्रपात है। नाली से पानी का बहना प्रवाह है। स्नानघर में ये दोनों होते हैं।
जल और अग्नि में स्वाभाविक बैर है। इसलिये रसोई घर में जल प्रवाह वा प्रपात रोग, शोक, कलह उत्पन्न करना है। आधुनिक घरों में जल स्थान (बेसिन) होता है इसलिये अग्नि स्थान एवं जल स्थान में अलगाव के लिये प्रतीकात्मक पतली दीवार का होना आवश्यक है।
आधुनिक घरों में शौचालय एवं स्नानालाय साथ-साथ होते हैं। इसमें भी दोष है। शौच स्थान राहु का है। । जल चन्द्रमा है। राहु एवं चन्द्रमा में स्वाभाविक वैर है। चन्द्रमा मन है। राहु छाया (मल) है। इन दोनों के योग से ‘ग्रहण’ स्थिति उत्पन्न होती है। मनदूषित एवं खिन्न रहता है। यह स्वास्थ्य के लिये अच्छा नहीं है। मन का सतत राहुमस्त होना चन्द्रग्रहण है। इसमें लैकिक कर्म वर्जित हैं। इसलिये इससे बचने के लिये शौचस्थान एवं स्नानस्थान के बीच में भी एक प्रतीकात्मक पतली दीवार खड़ी कर देना चाहिये।
रसोई घर में अग्नि कोण में अग्नि (चूल्हा) होना तथा इसके विपरीत दिशा वायव्य से जल प्रवाह प्रपात का होना शुभ है। रसोई घर का जलस्थान पूर्व एवं उत्तर में भी प्रशस्त है, अन्य दिशाओं में नहीं। इसी प्रकार शौचालय स्नानालय के सम्मिलित कक्ष में नैर्ऋत्य कोण में शौचस्थान तथा इसके विरुद्ध ईशान कोण में स्नानस्थान रखना उत्तम एवं शुभ है। इसका ध्यान रखना बुद्धिमत्ता है।
घर में नैर्ऋत्य दिशा राहु का स्थान है। यहाँ अंधेरा रहना शुभ है। इससे राहु पुष्ट होता है। नैर्ऋत्य कोण के कक्ष की खिड़कियाँ बन्द रखनी चाहिये। उन्हें कभी-कभी खोलना चाहिये। यहाँ अल्प प्रकाश होना चाहिये। यह स्थान खुला होने पर ऊर्जा के प्रवाह को रोक नहीं पाता। घर के शुभ के लिये यह आवश्यक है कि ईशान से आने वाली ऊर्जा नैर्भृत्य से हो कर बाहर न निकल जाय। इससे घर की पुष्टि नहीं होती। जिन घरों में नैर्ऋत्य खुला होता है, वहाँ बीमारी, पराभव, अनुत्साह दीर्घसूत्रता होती है। इसलिये नैर्ऋत्य भाग को बन्द रखना श्रेष्ठ है। घर की छत पर नैर्ऋत्य स्थान को ऊपर से ढका हुआ रखना चाहिये। इससे विदेश से धन तथा राजसत्ता से लाभ होता है। नैर्ऋत्य कोण में नागफनी का पौधा (कैक्टस) रखना शुभ एवं पुष्टिकर है। गृहस्वामी को नैर्ऋत्य दिशा में सोना / रहना साधु है। यहाँ पर अतिथि को कभी नहीं ठहराना चाहिये। अतिथि के लिये वायव्य दिशा ही उचित है। नैर्ऋत्य कोण स्थायित्व देता है। यह प्रभावशाली दिशा है जो पूरे घर पर अपना नियंत्रण रखती है। इस सथान पर भारी मशीनरी एवं आग्नेयास्त्र रखना भी उचित है। क्योंकि राहु दैत्यों का सेनापति है। इसलिये सैन्य सामग्री रखना यहाँ उचित है। किन्तु गृहस्थ के घर में गोला बारूद बम आदि रखना उचित नहीं है। दीवार के भीतर सामान रखने के लिये स्थान बनाना, उसे खोखला करना है, इससे दोवार विकृत एवं निर्बल होती है। यह अशुभ है। दीवार को पोली किये बिना सामान कोष्ठ बनाना शुभ है दीवार में कील वा खूंटी गाड़ने से उस दिशा का स्वामी पीडित 1 होता है। इसलिये दिशा स्वामी की प्रकृति के अनुकूल कोल वा खूंटी का प्रयोग करना उचित है। क्योंकि चित्रादि टाँगने के लिये खूंटी को आवश्यकता पड़ती ही है। दीवार सम होनी चाहिये। दीवार के ऊँची नीची होने पर अशुभ फल होता है। दीवार चुनने पर यदि दीवार बाहर की ओर निकल जाय वा अन्दर की ओर धंस जाय अथवा ऊबड़ खाबड़ हो जाय तो उसका इस प्रकार फल है-
१- पूर्व दिशा में तीव्र राजदण्ड का भय ।
२- दक्षिण दिशा में व्याधि एवं राजकीय संकट ।
३- आग्नेय दिशा में अग्निभय एवं प्राणहानि।
४. नैर्ऋत्य दिशा में नाना उपद्रव एवं स्त्रीशोक ।
५. पश्चिम दिशा में धनहानि एवं चोरी का भय।
६ .उत्तर दिशा में गृहस्वामी पर सतत संकट, मिस्त्री पर कष्ट ।
७- वायव्य दिशा में वाहनक्षति, पुत्रशोक, सेवकपलायन।
८. ईशान दिशा में गोक्षति गुरुजनों पर विपत्ति, शोक होता है।
दीवार से भवन की आयु का निधार्रण होता है। जो दोवार ऊपर मोटी नौचे पतली कहीं मोटी, कहीं पतली तथा कहीं झुकी हुई हो तो भवन के लिये अशुभ है। इससे धन जन को हानि होती है तथा मकान की आयु क्षीण होती है
असम एवं अपक्व ईटों द्वारा चुनी दीवार अल्पायुष्य होती है। मकान की दीवार का नंगी रहना अशुभ है। इसलिये दीवार की लिपाई (पलस्तरी) तथा पोताई करना आवश्यक एवं शुभ है। दीवार में किसी भी प्रकार का छिद्र जो दृश्य हो, शुभ नहीं है। दीवार के भीतर आलमारी (वस्तुवाह) बनाना भी शुभ नहीं है। दीवार में कोना बना कर तदनुरूप सामान रखना उचित है
घर में कक्ष के सौन्दर्य को बढ़ाने के लिये उसमें चित्र स्थापित किये जाते हैं। अप्रशस्त जीवों, मांसभक्षी पशु-पक्षियों के चित्र दीवार पर नहीं लगाने चाहिये। सिंह, सियार, कुत्ता, सुअर, साँप, बिल्ली, ऊंट, बन्दर, गधा, आदि पशुओं तथा गिद्ध, कौवा, कबूतर, उल्लू, बाज, बगुला, आदि के चित्र वर्जित हैं। युद्ध के दृश्य दीवारों पर नहीं अंकित होने चाहिये। भयंकर दृश्य भी नहीं होना चाहिये। दुःखी जनों के भी चित्र नहीं होने चाहिये। दीवार पर महापुरुषों देवी-देवताओं फलवाले वृक्षों, पुष्पित लताओं, हँसते-खेलते बालकों के चित्र स्थापित करना शुभ है। धर्म एवं नीति को पुष्ट करने वाले चित्र ही गृह में होने चाहिये ।
दीवारों पर रेखा खींचने से ऋण की वृद्धि होती है। इसलिये दीवार पर कुछ लिखना, अंकित करना वा रेखा खींचना उचित नहीं है। लिखित चित्रित आप्त वचनों एवं कथानकों को दीवार पर टाँगना ठीक है। दीवार पर प्ररेणादायक स्फूर्तिकर नैतिक मापदण्डों के अनुरूप चित्र रखना टाँगना उचित है।
दीवार की ऊंचाई एवं मोटाई में १० : १ का अनुपात होना शुभ है। जैसे यदि फर्श से लेकर छत तक दीवार १० हाथ ऊँची है तो उसकी मोटाई १०÷१० = १ हाथ होना चाहिये। ऐसा केवल पक्की दीवार के लिये है। कच्ची वा मिटटी को दीवार होने पर यह अनुपात ५ : १ का होना है। अर्थात् यदि १० हाथ ऊंची मिटटी को दीवार बनाना है तो उसकी चौडाई २ हाथ होनी ही चाहिये।
गृहस्थ के भवन में दरवाजे के सामने दरवाजा, दरवाजे के ऊपर दरवाजा, दरवाजे के पार्श्व में सन्निकट दरवाजा रखना अशुभ है। किन्तु यही राजकीय अथवा सार्वजनिक भवनों में शुभ होता है। दरवाजों का शीर्ष एक सीध में होना उत्तम है। दरवाजे की लम्बाई एवं चौडाई के अनुकूल उसकी मोटाई होनी चाहिये। यदि दरवाजा अधिक लम्बा चौड़ा है तो उसे अधिक मोटा होना चाहिये। पर्याप्त मोटाई से दरवाजों में दृढ़ता आती है। दरवाजे व्यक्तित्व के मापक हैं। यदि भारी दरवाजे हैं तो गृहस्वामी का व्यक्तित्व भी भारी है ऐसा जानना चाहिये। घर के मध्य में द्वार के होने से कुल का नाश होता है, धन-धान्य की क्षति होती है, स्वी में दोष उत्पन्न होता है तथा गृहकलह की सृष्टि होती है। आमने-सामने के दरवाजे व्ययकारक एवं दारिद्र्य प्रदायक होते हैं। खिड़कियों के सम्बन्ध में भी यही बातें लागू होती हैं। सम सुष्ठु दरवाजे, सीढ़ियाँ, खिड़कियाँ एवं स्तंभ शुभ की अभिव्यक्ति करते हैं। इसके विपरीत तो अशुभ हैं ही।