विरक्ति और वैराग्य में बहुत बड़ा अंतर है । विरक्ति कहते हैं उस तत्व से विमुखता या उससे about turn हो जाना ।
लेकिन वैराग्य अलग तत्व है ।
वैराग्य का अर्थ है न ही किसी से वैर हो और न ही किसी से राग । अर्थात न ही किसी से आसक्ति हो और न ही किसी से विरक्ति । वैराग्य = वैर और राग दोनों का नष्ट हो जाना । उदासीन हो जाना । न उसकी प्राप्ति में सुख मिले और न ही उसके छिन जाने पर दुःख ।
लोगों को बहुत भ्रम रहता है कि विरक्ति और वैराग्य एक ही है । न बिल्कुल नहीं ।
विरक्ति से साधना मार्ग की ओर प्रशस्त हो सकते हैं लेकिन विरक्ति से साध्य नहीं मिलेगा । क्योंकि अभी तक आपके मन में उस तत्व के प्रति द्वेष की भावना है कि वह तत्व गंदा है या मुझे उससे दूर रहना है । यह भगवदप्राप्ति और ज्ञान प्राप्ति में बाधक तत्व है ।
बल्कि वैराग्य इसका उल्टा है । वैराग्य में उस वस्तु या तत्व के प्रति उदासीन भाव हो जाता है ।
जैसे आपने सुना होगा कि कई साधु या पंथ स्त्रियों को नहीं देखते या पैसे को नहीं छूते , यह उनके लिए पाप है । तो यह विरक्ति है । लेकिन यह विरक्ति साधना मार्ग पर चलने तक के लिए ठीक है लेकिन यह विरक्ति आपको उद्देश्य और लक्ष्य से बहुत दूर ले जाएगा अगर आपने इस विरक्ति को नहीं छोड़ा तो ।
विरक्ति के बाद का स्तर है वैराग्य । वैराग्य में सम भाव की उत्पत्ति होती है । न ही उसके प्रति वैर भाव और न ही उससे राग भाव । जिसे सम न्यास कहते हैं या साधारण भाषा में सन्यास कहते हैं ।
अर्थात सबको समान भाव से न्यास करना । समान भाव से देखना । अगर किसी के प्रति वैर भाव है तब भी आप लक्ष्य से दूर हैं और किसी के प्रति राग भाव है तब भी आप लक्ष्य से दूर हैं । इसलिए विरक्ति शुरुवात में ठीक है लेकिन वैराग्य भाव उत्पन्न होना चाहिए ।
वैराग्य ही सबको धारण करने योग्य है ।
वृन्दावन में जब मीराबाई गयी किसी संत के दर्शन करने तो उनके शिष्यों ने उन्हें यह कहकर अनुमति नहीं दी कि गुरुजी स्त्रियों से पैर नहीं छुआते और स्त्रियों के दर्शन की मनाही है । तो यह स्त्रियों के प्रति विरक्ति भाव है । लेकिन जब मीराबाई जी ने यह कहा कि अच्छा मुझे तो पता नहीं था कि इस वृन्दावन में भगवान कृष्ण जैसे परम् पुरुष के अलावा भी कोई पुरुष है , तब जब उन सन्त ने यह बात सुनी तब वह समझ गए कि यह कोई साधारण नहीं । तब उन्होंने मीरा जी को बुलाया और उनके दर्शन किये । तो मीराबाई ने उनको वैराग्य सिखाया ।
अगर अब भी स्त्री पुरुष आपकी आंखें मन बुद्धि सब देख पा रही है तो आप कोसों दूर हैं भगवान से । तो वैराग्य यह है ।
तुलसीदास जी को विरक्ति हुई रत्नावली की बातों से लेकिन धीरे धीरे यह वैराग्य में परिवर्तित हो गया । बाद में रत्नावली आयी और पैरों में खूब गिरकर रोई लेकिन तुलसीदास जी वैराग्य की स्थिति में थे , न उन्हें दुख हुआ और न सुख हुआ ।
महात्मा बुद्ध को नगर भ्रमण करते समय विरक्ति हुई जो वैराग्य में परिवर्तित हो गया । उनकी स्त्री भी भगवान के चरणों में आई और उनसे दीक्षित हुई , लेकिन भगवान बुद्ध वैराग्य अवस्था में ही उन्हें दीक्षित किया ।
यही भगवान ने अर्जुन से कहा कि समदर्शी बनो । चांडाल से लेकर ब्राह्मण और कुत्ता में भी वही भाव रखना है ।
इसे ही वैराग्य कहते हैं । न सांसारिक सुख हो न ही सांसारिक दुख । और विरक्ति का भाव बिना अनुभव किये नहीं आएगा । लेकिन वैराग्य का भाव बिना अनुभव के भी आ जायेगा । भले आप उस वस्तु या तत्व से अनभिज्ञ हों ।
तो दोनों में अंतर और परिभाषा अपने मन में स्पष्ट रखिये ।। यह सब बातें आपको कहीं नहीं कोई बताएगा । सभी आपको विरक्ति और वैराग्य एक ही बतायेंगे और जिसके कारण साधना मार्ग में आगे बढ़ने में रुकावट और विघ्न आते हैं ।। इसलिए वैराग्य और विरक्ति में अंतर स्पष्ट रखते हुए हमें वैराग्य धारण करना है और अपना कल्याण करना है । वैराग्य से आप गृहस्थ में रहते हुए भी संत महापुरुष बन सकते हैं । लेकिन विरक्ति भाव में आप यह नहीं कर सकते और सन्यास धारण करने पर भी विरक्ति भाव से साधक का पतन हो जाता है ।..