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जहाँ एक बेटी ने ली जिन्दा ही भू समाधि ! काशी की जागृत सिद्ध देवी शक्तिपीठ “महायोगिनी तारा देवी” का सिद्धपीठ मंदिर

काशी की जागृत सिद्ध #देवी #शक्तिपीठ “महायोगिनी तारा देवी” सिद्धपीठ मंदिर: जहाँ रानी भवानी की बेटी तारा सुंदरी ने जिन्दा ही भू समाधि ले ली थी

काशी सिर्फ शिव से ही विख्यात नहीं है बल्कि यहां पर अन्य देवी-देवताओं के भी अदभुत मंदिर स्थापित हैं जिनमे से कई जागृत सिद्ध देवी पीठ है ओर उन्ही मे से एक प्रसिद्ध तारा देवी जागृत सिद्धपीठ मंदिर काशी के पांडेयघाट के देवनाथपुरा गली  मे मकान नंबर डी 24/४ मे स्थापित है जहाँ नवरात्रि एबं दीपावली की अमावस्या के अवशर पर तंत्र अनुष्ठान के लिये हिंदुस्तान के कोने कोने से सिद्ध  तांत्रिक जुटते है एबं घोर  तंत्र साधना कर के सिद्धियों को प्राप्त करते है | 

काशी में दशाश्वमेध घाट के पास काली मंदिर से जब आप केदार घाट की ओर बढ़ेंगे तो उसके बाद पांडेय घाट आता है ओर पांडेय घाट से लगे  देवनाथपुरा गली  मे मकान नंबर डी 24/4 मे यह सिद्ध देवी शक्ति पीठ स्थित है  ओर जैसे ही आप तीन सीढ़ी चढ़कर डी 24/४ के अहाते के अंदर दाखिल होते है  तब एक बड़ी-सी भव्य  हवेलीनुमा मंदिर पड़ती है जिसमे  काशी की सिद्धपीठ श्री तारा और श्री काली मंदिर मौजूद है। मां तारा को तंत्र की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है जबकि  मां काली को भद्रकाली का रूप माना जाता है जो कि यहाँ शव पर खड्ग लिए खड़ी है । डी 24/४ के विशाल अहाते मे चार आंगन हैं। वैसे तो यहां कई देवता बिराजमान हैं, परन्तु मुख्य मंदिर मे मां तारा एबं  मां काली बिराजति है ओर  इनमें भी मुख्य हैं मां श्री तारा। यहाँ स्थापित माँ तारा एबं माँ काली के बिग्रह इतने जीवंत एबं ऊर्जामान है कि इनके आँखों मे आंखे डाल कर देखने पर शरीर मे सिहरन होने लगती है। यहाँ इस मंदिर मे एक ऊंचे चबूतरे पर स्थापित है मां नील तारा का खूबसूरत नीला विग्रह। मां नील तारा का  विग्रह  दिखने मे पत्थर का ना होकर रोशनी मे नहायी हुयी जीवित नज़र आती है ओर इनके आँखों मे देखने पर भय मिश्रित सम्मोहन का एहसास होने लगता है एबं  शरीर मे सिहरन के कारण ह्रदय का हार्ट बीट बढ़ जाता है , मां नील तारा कि प्रतिमा ऊर्जा से ओत प्रोत है जिस कारण इनको देखने पर शरीर मे कपकपी होने लगती है |

काशी के महायोगिनी तारा देवी मंदिर की खास पहचान यह है कि इसमें चार बड़े-बड़े आंगन हैं। जिसमें अलग देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। चार आंगन इस मंदिर की पहचान बन गयी है। जिसकी वजह से इसे चार आंगन वाला मंदिर भी कहा जाता है।गली से मंदिर में प्रवेश करने के लिए पुरानी कोठरी से गुजरना पड़ता है जिसका दरवाजा बहुत छोटा सा है। कोठरी से अंदर प्रवेश करने पर स्थित है मुख्य आंगन, जिसमें एक तरफ पारिजात का वृक्ष है। इस आंगन के सामने बरामदे में मां विशालाक्षी देवी की प्रतिमा स्थापित है। आंगन के दाहिनी ओर राधा-कृष्ण, ललिता का मंदिर है। आंगन के बायीं ओर गोपाल का मंदिर है। इस मंदिर की विशिष्टता यह है कि पहले आंगन में पहुंचने के बाद ऐसा लगता ही नहीं है कि भीतर तीन आंगन आकार में इतने बड़े और हैं। मुख्य आंगन से दाहिनी ओर पतली सी गैलरी में जाने पर दाहिने तरफ छोटा सा दरवाजा है उसमें प्रवेश करने पर बड़ा सा आंगन है जिसमें तारा देवी की प्रतिमा स्थपित है वहां आपको एक अलग तरह की अनुभूति होने लगेगी। यहीं राजकुमारी तारा सुंदरी की समाधि पर देव मंडप में पंचमुंड आसन पर स्थापित हैं मां नील तारा, शिल्पकारों ने मां नील तारा के प्रतिमा के मुखमंडल पर ऐसे रौद्र भाव उकेरे है एबं मां के मुखमंडल पर ऐसे चमत्कारिक आभा को सृजित किये है कि जिसके दर्शन के समय भक्तो कि आंखे मां के मुखमंडल पर चमत्कारिक आभा के चलते टिक ही नहीं पाती। वहीं उसी गैलरी से बायीं ओर जाने पर इसी प्रकार के एक आंगन में रौद्र स्वरूपा मां काली का मंदिर है जो काफी दर्शनीय है । मुख्य आंगन से बायीं ओर गैलरी में जाने पर एक और आंगन स्थित है। इस आंगन में मां दुर्गा की भव्य प्रतिमा स्थित है। चारो आंगनों में मंदिरों के आगे फौव्वारा भी बना हुआ है। यहाँ जगज्जननी काली माता एवं तारा माता के पूजन का तंत्र बिधान है | तारा देवी सिद्धपीठ मंदिर मे दीपावली की अमवस्या पर काली पूजा के दिन खास तरह की तंत्र पूजा की जातीं है जिसे  सिद्ध साधक अंजाम देते है ओर जो काफी गोपनीय होता है | यहाँ हर मास की हर अमावस्या को देवियों को तंत्र पूजाएं की जाती हैं।

काशी मे स्थापित महायोगिनी तारा मंदिर मे माँ तारा देवी के दिब्य तेज़ का कारण इनके बिग्रह के नीचे  स्थित नीव मे स्थापित जीवित समाधि का खाश आभामंडल है जहाँ एक मां ने अपनी सुदर्शन बेटी की सतित्वा  बचाने के लिए उसे ज़िंदा ही दफ़्न कर दिया था ओर उसे जीते-जी भू समाधि दे दी थी एबं उस समाधि पर मां तारा देवी का विग्रह स्थापित कर दिया था | जीवित भू समाधि स्थल  पर देवी तारा का विग्रह स्थापित करने वाली वह मां थी बंगाल के नाटोर राज्य की धर्मप्राण राजमाता महारानी भवानी और जीवित भू समाधि लेने वाली उनकी बेटी थी राजकुमारी तारा सुंदरी।

वाराणसी स्थित तारा देवी जागृत सिद्ध पीठ, बंगाल के नाटोर राज्य की धर्मप्राण राजमाता महारानी भवानी की बेटी राजकुमारी तारा सुंदरी की समाधि पर स्थापित है जहाँ पर राजकुमारी तारा सुंदरी ने जिन्दा ही भू समाधि ले ली थी ओर और बेटी के समाधि  ले लेने के उपरांत उनकी माँ राजमाता महारानी भवानी ने उनके समाधि स्थल पर सन 1752 मे मंदिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ करवाया जो की लगातार छह सालो तक चलता रहा एबं सन 1758 मे जाकर मंदिर का कार्य पूर्ण हुवा |

नाटोर बंगाल के बड़े रजवाड़ों में से एक था जिसकी सीमाएं 13 हज़ार वर्ग मील में फैली हुई थीं। मुर्शिदाबाद, वीरभूम,राजशाही , नादिया, बगुरा, पावना,  रंगपुर, मैमन सिंह, जसोहर और ढाका जैसे नगर उस राज्य में आते थे। नाटोर आर्थिक रूप से  बहुत सम्पन्न था । सन 1730 में उसकी सालाना आमदनी लगभग डेढ़ करोड़ रुपये की थी। यहीं के महाराजा के दत्तक पुत्र रमाकांत की पत्नी थीं रानी भवानी। वैसे उनका जन्म सन 1716 में बोगरा में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बोगरा अब बांग्लादेश में है। आठ वर्ष की उम्र में उन्होंने शादी कर महल में क़दम रखा। रमाकांत बहुत अय्याश किस्म के शख़्स थे। वह राज्य का सारा दारोमदार रानी भवानी पर छोड़कर विलासिता में डूबे रहते। उन दिनों ईस्ट इंडिया कंपनी और बंगाल के नवाबों का अत्याचार चरम पर था। ऐसे में महाराज रमाकांत की वजह से रानी को तमाम मुसीबतें झेलनी पड़ीं। बाद में दुश्मन राज्य के हमले में महाराज रमाकांत मारे गए। महाराज रमाकांत के मारे जाने के बाद बिधवा रानी भवानी और उनकी इकलौती पुत्री  राजकुमारी तारा सुंदरी अकेली रह गईं। 

रानी भवानी ने कालांतर मे राजकुमारी तारा सुंदरी का  विवाह खजुरा के रहने वाले रघुनाथ लाहिड़ी से करवा दिया पर दैवयोग से रघुनाथ की बहुत कम उम्र में ही मौत हो गई तदुपरांत राजकुमारी तारा सुंदरी भी अपनी माँ रानी भवानी की तरह वैधव्य झेलने को विवश हो गयी |

राजकुमारी तारा अपुर्व सुंदरी थी। बंगाल के तत्कालीन नवाब सिराजुद्दौला की नज़र रानी भवानी के नाटोर राज्य एबं उनकी  अपुर्व सुंदरी बिधवा बेटी तारा पर पड़ चुकी थी । सिराजुद्दौला ने राजकुमारी तारा से निकाह करने का ऐलान कर दिया ओर अपना सन्देश रानी भवानी तक भिजवाया । रानी भवानी को अपनी पुत्री का बिवाह बिधर्मी नवाब सिराजुद्दौला के साथ करना मंजूर नहीं था अतः सिराजुद्दौला के अत्याचार से बचने के लिए रानी भवानी  ने अपनी पुत्री राजकुमारी तारा के साथ  नाटोर से गंगा के रास्ते नाव के द्वारा  काशी जाने का फैसला किया एबं कशी आ गयी |  सिराजुद्दौला को जब  रानी भवानी  एबं उनकी पुत्री राजकुमारी तारा के काशी पहुंचने का समाचार मिला तो उस बिधर्मी आततायी नवाब सिराजुद्दौला ने राजकुमारी तारा के साथ निकाह करने के लिये  सेना एबं बारात के साथ काशी का रुख कर लिया |  

महारानी भवानी को जब यह ख़बर मिली कि नवाब सिराजुद्दौला ने सेना और बारात के साथ काशी का रुख कर लिया है तो उन्होंने अपनी बेटी राजकुमारी तारा सुंदरी से बात की। तब राजकुमारी  तारा सुंदरी ने अपनी  मां से कहा कि वे जीते जी उस बिधर्मी सिराजुद्दौला से शादी नहीं करेंगी एबं उसके अत्याचार से बचने के लिये काशी मे जिन्दा ही भू समाधि ले लेंगी |  राजकुमारी  तारा सुंदरी कि बात मानकर  मां रानी भवानी ने अपने दिल पर पत्थर रख कर अपनी बेटी को ज़िंदा ही दफना दिया एबं  उनकी समाधि पर उन्होंने रातों-रात मां तारा का विग्रह स्थापित कर उसमें प्राण प्रतिष्ठा कराया। राजकुमारी  तारा सुंदरी  के जीवित भू समाधि लेने की खबर से बेखबर  सिराजुद्दौला सेना एबं बारात के साथ काशी की तरफ बढ़ रहा था तो एक रात सोते समय उसने एक भयानायक सपना देखा ओर सपने मे सिराजुद्दौला ने देखा कि  राजकुमारी तारा देवी आग के गोले मे नहायी हुयी प्रचंड बेग मे धधकती हुयी बिकराल रूप धारण किये  , अपने एक हाथ मे तलवार लिये एबं दूसरे हाथ मे खप्पर लिये  हुए उसके सीने पर बैठी हुयी है एबं उसके सिर को तलवार से काटकर उसके धड़ से अलग कर उसके कटे हुये सिर से निकलने वाले रक्त कि धार को अपने खप्पर  मे डालकर  रक्तपान कर रही है . | इस सपने को देखकर सिराजुद्दौला बहुत डर गया ओर उसके बाद उसी रात वह उल्टे पाँव वापस बंगाल भाग गया | 

धर्मप्राण राजमाता महारानी भवानी ने काशी के उसी स्थान पर जहाँ पर उनकी पुत्री ने जिन्दा भू समाधी ली थी उसी स्थान पर रत्न चतुर्दशी के दिन सन 1752 मे महायोगिनी माँ तारा एबं माँ काली का विशाल मंदिर को बनवाना शुरू किया जो छह साल तक लगातार चलता रहा एबं ठीक रत्न चतुर्दशी के दिन सन 1758 मे महायोगिनी मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ | बेटी के समाधि ले लेने से रानी भवानी में एकदम से वैराग्य उत्तपन्न हो गया तत्पश्चात उन्होंने खूब दान-पुण्य करना शुरू कर दिया। उन्होने काशी नगरी के अलावा पंचक्रोशी यात्रा के मार्ग पर तमाम धर्मशाला बनवाईं, कुंए और तालाब खोदवाए, पेड़ लगवाए। कम लोग जानते हैं कि काशी में तमाम मंदिर, घाट, धर्मशाला, तालाब और कुंड या तो महारानी अहिल्या बाई के बनवाए हुये हैं या फिर धर्मप्राण राजमाता महारानी भवानी के।

राजमाता महारानी भवानी के बारे में कहा जाता है कि काशी मे वह हर रोज गंगा स्नान के बाद एक भूखंड दान किया  करती थीं। भूखंड दान करने का उनका यह  क्रम पूरे एक साल तक लगातार प्रत्येक दिन चलता रहा और इन एक साल के 365 दिनों मे धर्मप्राण राजमाता रानी भवानी ने  काशी में मंदिर धर्मशाला कुंड सरोवरों व भवनों के लिए कुल 365 भुखंड दान किए।  ब कोई दान लेने नहीं आता था तो काशी के कुमार स्वामी मठ के लोग रानी भवानी से मकान या भूखंड दान में ले लेते थे । काशी में कुमार स्वामी मठ की ज़्यादातर सम्पत्ति रानी भवानी से दान में मिली हुई है। धर्मप्राण राजमाता रानी भवानी ने प्रसिद्ध दुर्गा मंदिर, दुर्गाकुंड तालाब, पुष्कर तालाब, कुरूक्षेत्र तालाब, ओंकारेश्वर मंदिर, लाट भैरव व रामेश्वर तीर्थ सहित कुल 380 देवालय, सरोवर और धर्मशालाएं का पुनरुद्धार एबं सुंदरीकरण करवाया था |

रानी भवानी के द्वारा स्थापित काशी के महायोगिनी तारा मंदिर कि साधना केवल उच्च कोटि के साधक ही कर पाते है। इस मंदिर मे तंत्र क्रिया सामान्य पुजारी नहीं कर पाते है , मंदिर की तंत्र पूजा और रिवाज बंगाल के विरभूमि में स्थापित मां तारा पीठ के अनुसार ही संपन्न होता है क्युकी रानी भवानी ने काशी के तारा मंदिर की पूजा और सारी परंपराएं बंगाल के वीरभूम में स्थापित मां तारा पीठ से जोड़ दीं थी ।

सामान्य दिनों मे दर्शन पूजन के लिये यह मंदिर प्रातः काल 6 बजे से अपरान्ह 1:30 तक एबं शाम 4 से रात 10 बजे तक खुला रहता है | शयन आरती रात 9 बजे होती है | 

इस महायोगिनी तारा मंदिर की मान्यता है की यहाँ दर्शन करने से सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते है एबं सुख सम्बृद्धि प्राप्त होती है | नवरात्र के समय यहाँ पर हिंदुस्तान के कोने कोने से सिद्ध तंत्र साधको की भारी भीड़ जमा होती है जो यहाँ पर अपनी गुप्त साधना करने के लिये आते है | 

काशी में मां तारा का एक और मंदिर है। जिसकी  स्थापना इंदौर की महारानी अहिल्या बाई ने की थी।

 

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